हर्षवर्धन तथा उसकी उपलब्धियाँ का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये
(1) नरवर्धन
(2) राज्यवर्धन । (3) आदित्यवर्धन
(4) प्रभाकरवर्धन व (5) राज्यवर्धन द्वितीय ।
इस प्रकार हर्षवर्धन इस वंश का छठा शासक था । परन्तु इसके ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्धन द्वतीय का शासन तो अति अल्पकालीन ही सिद्ध हुआ। पुष्यभूति वंश का प्रथम प्रतापी शासक प्रभाकर वर्धन था जिसने सर्वप्रथम अपने को महाराजाधिराज, परमभट्टारक की उपाधि से विभूषित किया। अत: इन उपाधियों के आधार पर स्पष्ट है कि प्रभाकर वर्धन के समय में यह वंश गुप्त वंश के प्रभत्व से सर्वथा मुक्त हो गया था। बाण ने अपने ग्रंथ में प्रभाव १धन की दिग्विजय का वर्णन बडे ही अलंकारिक रूप में किया है। उसमें लिखा है, ५ वचन पूर्ण रूपी हरिण के लिए सिंह सिन्धु राज के लिए ज्वर, गुर्जर की निद्रा को अंग वाला, गांधार नरेश रूपी सुगन्ध हाथी के लिए महामारी, लाटों की पटुता को अपहरण व वाला और मालवा देश की लता रूपी लक्ष्मी की शोभा को नष्ट करने वाला परश था।
मधुवन लेख भी बताता है कि प्रभाकर वर्धन की कीर्ति चारों समुद्र के पार पहुंच गई थी । प्रभाकर वर्धन शिव का उपासक था । हर्ष चरित की धारणा है कि सूर्य की अनुकम्पा से ही प्रभाकर वर्धन के तीन सन्तानें हुई थीं राज्य वर्धन, हर्ष वर्धन तथा राज्यश्री । वैवाहिक सम्बन्ध से अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए प्रभाकर वर्धन ने अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरी राजा गृहवर्धन से कर दिया था।
हर्ष का प्रारम्भिक जीवन -
हर्षवर्धन प्रभाकर वर्धन का छोटा पुत्र था। जो रानी यशोमती से उत्पन्न हुआ था। इसका जन्म 590 ई. में हुआ था। इसका बाल्यकाल इसके मामा के पुत्र भाण्डी के साथ व्यतीत हुआ। पढ़ने लिखने में उसकी अच्छी रुचि थी । बाण ने लिखा है कि हर्ष ने शास्त्र विद्या पूर्ण रूप से सीखी । हर्षवर्धन में किशोरावस्था से ही सैनिक गुण विकसित हो चुके थे। वह पराक्रमी और वीर था । हर्ष को युद्ध कला की शिक्षा समुचित रूप से दी गई थी। उसे शिकार खेलने का बहुत शौक था।हर्ष का सिंहासनारोहण -
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि जब 606 ई. में प्रभाकर वर्धन इस लोक से विदा हो गया तो राज्यवर्धन गद्दी पर बैठा । परन्तु उसका शासन अल्पकालीन सिद्ध हुआ। उसके गद्दी पर बैठने के कुछ ही समय पश्चात् मालवा के परवर्ती गुप्त शासक देवगुप्त ने बंगाल के राजा शशांक के साथ मिलकर कन्नौज पर आक्रमण कर दिया और वहाँ के राजा गृह वर्मन को मारकर उसकी पत्नी राज्यश्री को कैद कर लिया। राज्यवर्धन यह समाचार सुनकर अपने बहनोई की हत्या का प्रतिशोध लेने और अपनी बहन राज्यश्री को छुड़ाने के लिए एक विशाल सेना लेकर पूर्व में गौड़ (बंगाल) की ओर बढ़ा । मालवा का राजा देवगुप्त तो परास्त हो गया। परन्तु देवगुप्त के मित्र शशांक ने धोखे से राज्यवर्धन को मार डाला और कन्नौज पर अधिकार कर लिया.राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात इसके उत्तराधिकारी के रूप में उसका छोटा भाई हर्षवर्धन थानेश्वर का राजा बना । हर्षवर्धन प्रभाकर वर्धन का दूसरा पुत्र था। अपने भाई राज्यवर्धन का वध हो जाने पर विवश होकर उसे 606 ई. में सिंहासन सम्भालना पड़ा। उस समय उसकी आयु केवल 16 वर्ष की थी।
हर्षवर्धन की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ -
हर्ष को शासक बनते ही कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जो निम्न थी ----(1) ज्येष्ठ भ्राता की असामयिक मृत्यु से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना करना ।
(2) कन्नौज के राजा गृहवर्मन का वध तथा वहाँ के उत्तराधिकारी का प्रश्न ।
(3) बहिन राज्यश्री की तलाश करना जो मालवा नरेश द्वारा मुक्त किये जाने पर पर्वतों की ओर सती होने के लिए चली गई थी।
(4) राज्य के चारों ओर शत्रुओं की उपस्थिति ।
हर्ष ने बड़े साहस एवं धैर्य के साथ इन समस्याओं का सामना किया। हर्षवर्धन बर्ड सेना लेकर इन समस्याओं के निवारण के लिए निकल पड़ा। रास्ते में उस समाचार मिला कि उसकी बहिन राज्यश्री बन्दीगृह से निकलकर विन्ध्याचल के वनों में चली गई है। अब दृष अपने सेनापति भाष्डि को शशांक पर निगाह रखने के आदेश देकर बहिन की खोज में निकल पड़। हर्ष अपनी बहन के पास उस समय पहुँचा जब कि वह एक चिता बन का टि दृन जा रही थी। राज्य के लेकर हुई कुनौज गया परन्तु शशांक हुई से भयभीत हे कोड छेडकर भाग गया। इस प्रकार बिना किसी संघर्ष के काज त ह गया।
कन्नौज के उत्तराधिकार के प्रश्न
बहिन के अपने साथ ले आने के बाद दृई ने कन्नौज के उत्तराधिकार के प्रश्न को इल करना चाहा। गृहवर्मा निसन्तान भरा था। इसलिए यह प्रश्न और भी जटिल बन गया था। परन्तु कनौज के मंत्रियों ने भाष्डि के नेतृत्व में हुई से ही नौज की गद्दी पर बैठने का आग्रह किया। पहले तो दृई ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। परन्तु अन्त में बहिन श्री और वहाँ के मंत्रियों के समझाने पर दृर्ष ने कन्नौज का भी राजा बनना स्वीकार कर लिया। वहाँ का शासन उसने अपनी बहिन की मंत्रणा से ही संचालित किया तथा अपने को शीलादित्य के विरुद्ध तथा कुमार की उपाधि से ही अलंकृत किया। कहते हैं कि अवलोकितेश्वर बोधिसत्व के कहने पर दृई ने केवल कुमार की पदवी धारा की थी परन्तु यह घटना इतिहास में महत्वपूर्ण बन गई। इससे दृर्षवर्धन थानेश्वर व कन्नौज टन का स्वामी बन गया और इसके परिणामस्वरूप उत्तरापथ में पुन:शक्तिशाली राज्य की स्थापना हो सकी।हर्षवर्धन की दिग्विजय अथवा विजयें - थानेश्वर और कन्नौज टानों का शासक हो जाने से हुई के सैनिक और राजनीतिक शक्ति में भारी वृद्धि हो गई। दृर्ष को अपना साम्राज्य बनाये रखने के लिए राजनीतिक एकता टापित करना अत्यन्त आवश्यक था।
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