देवगुप्त, विष्णुगुप्त और जीवित गुप्त द्वितीय के समाय की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन कीजिये
अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया। उसकी कीर्ति समुद्र पार चली गई थी । इस अभिलेख के कथन से यह सम्भावना की जा सकती है कि इस पराक्रमी सम्राट ने पूर्वी समुद्र तट के प्रदेशों को अपने स्वामित्व में ले लिया था। इस तरह मगध, अंग तथा बंग उसके साम्राज्य में सम्मिलित थे । वैद्यनाथ मन्दिर अभिलेख में आदित्य सेन को समुद्र पार की भूमि का शासक कहा गया है। । डॉ. रामवृक्ष सिंह का कथन है कि इस प्रकार हर्ष की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी के अभाव, अर्जुन के विद्रोह, तिब्बती आक्रमण आदि से उत्तरी भारत में जो राजनीतिक अशान्ति उत्पन्न हो गयी थी, उसके फलस्वरूप देश में किसी शक्तिशाली साम्राज्य का नितान्त अभाव हो गया था । इस अव्यवस्था को दूर करने तथा उत्तरी भारत में पुः: साम्राज्य स्थापित करने का श्रेय उत्तर कालीन गुप्त नरेश आदित्य सेन को ही प्राप्त है। इस साम्राज्य की सीमा पश्चिम में गोमती नदी तक, पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक, उत्तर में गंगा से लेकर ा में छोटा नागपुर तक फैली थी। उसके शासन का अन्त लगभग 675 ई. के आस-पास हुआ।
देवगुप्त, विष्णुगुप्त और जीवित गुप्त द्वितीय की उपलब्धियाँ
मन्दर अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह एक दानी नरेश था उसने अश्व मेघ यज्ञ के अनुष्ठान के अवसर पर हाथी, घोड़े तथा विपुल सम्पत्ति दान में दे दी थी। आदित्य सेन वैष्णव धर्मावलम्बी था इसकी पुष्टि देववर्नाक अभिलेख से होती है । इस अभिलेख में इसे परम् भागवत कहा गया है। अफसढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसने एक विष्णु का मन्दिर भी बनवाया । वैद्यनाथ लेख के अनुसार उसने विष्णु भगवान के वराह रूप की मूर्ति स्थापित करवाई थी । खुद वैष्णव धर्मावलम्बी होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति उसने सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसके शासन काल में सभी धर्मों के अनुयायियों को अपने धर्मानुसार पूजास्थलों का निर्माण करने की स्वतंत्रता थी । इसका जीता जागता प्रमाण है, उसका सेनापति शालपक्ष जिसने अपनी श्रद्धानुसार एक सूर्य देव की मूर्ति बनवायी थी।आदित्य सेन ने जनता के हितार्थ सार्वजनिक कार्य भी किया था। उसकी माता श्रीमती देवी ने धार्मिक शिक्षा के लिए एक मठ का निर्माण करवाया था। उसकी पत्नी श्रीमती कोपण देवी ने प्रजा की भलाई के लिए एक सरोवर का निर्माण किया। इस प्रकार विभिन्न अभिलेख एवं साक्ष्य आदित्य सेन की धार्मिक प्रवृत्ति, लोक कल्याण की भावना एवं उसके पराक्रम को पुष्ट करते हैं। |
(9) देवगुप्त -
आदित्य की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र देवगुप्त शासन का उत्तराधिकारी बना । देव वर्नाक के अभिलेख में उसे परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परममाहेश्वर आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है। इन उपाधियों से उसके पराक्रम एवं शैव धमावलम्बी होने का संकेत मिलता है । देवगुप्त के शासन काल से उत्तर गुप्तों का अध: पतन भारम्भ हो गया। चालुक्य नरेश विनयादित्य के केण्डूर ताम्रपत्र के आधार पर कुछ इतिहासकारों मत प्रतिपादित किया है कि चालुक्य नरेश विनयादित्य ने 680 ई. के लगभग उत्तरकालीन देवगुप्त को पराजित किया था। इस विजय के उपरान्त विनयादित्य ने सकलोत्तरापथ उपाधि धारण की थी। हुई लुन ने पूर्वी भारत के देवपाल नामक नरेश का उल्लेख राधागोविन्द वसाक तथा वी. पी. सिन्हा ने देवपाल की पहचान देवगुप्त से की है। काल सम्भवतः 695 ई. में समाप्त हो गया था।(10) विष्णुगुप्त -
देवगुप्त की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र विष्णु गुप्त मगध की गद्दी पर आसीन हुआ। देववर्नाक अभिलेख के अनुसार इसकी माता का नाम महादेवी श्रीकमलादेवी था। इसी अभिलेख में उसे देवगुप्त की भाँति परमभट्टारक, महाराजाधिराज एवं परममाहेश्वर उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। कुछ विष्णुगुप्त और चन्द्रादित्य नाम की मुद्राएं भी मिली हैं। इन मुद्राओं को अनेक इतिहासकार विष्णु गुप्त की मुद्राएं होना सिद्ध करते हैं। इन इतिहासकारों का मानना है कि मुद्राओं पर अंकित चन्द्रादित्य विष्णु गुप्त की ही उपाधि थी । वह अपने पिता की भाँति पराक्रमी था । उसका एक लेख बिहार के मंगराव नामक स्थान से मिलता है, जिससे विदित होता है उसने अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में मिले विस्तृत साम्राज्य को सुरक्षित रखा।अभिलेखों में उसके किसी भी युद्ध का उल्लेख नहीं मिलता इससे प्रतीत होता है कि उसके साम्राज्य को किसी भी बाहरी खतरे का सामना नहीं करना पड़ा। उसकी उपाधि से ज्ञात होता है कि वह शैव धर्मावलम्बी था उसने अनेक शिव मन्दिरों का निर्माण कराया । उसने लगभग 695 ई. से 715 ई. तक शासन किया।
(11) जीवित गुप्त द्वितीय -
विष्णुगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र जीवित गुप्त द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ यह उत्तरकालीन गुप्त वंश का अन्तिम सम्राट था । देववर्नाक लेख के अनुसार इसकी माता का नाम इज्जादेवी था । इसने भी अपने पूर्वजों की भांति परमभट्टारक, महाराजाधिराज तथा परमेश्वर की उपाधियाँ धारण की । देववर्नाक अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह एक दानी व्यक्ति था उसने अपने पूर्वगामी नरेशों बालादित्य तथा मौखरी नरेश सर्ववर्मा द्वारा दिये गये दानों का अनुमोदन किया था, जीवित गुप्त द्वितीय एक पराक्रमी सम्राट था उसके पास साम्राज्य की सुरक्षा हेतु एक शक्तिशाली सेना थी। देववर्नाक अभिलेख में बताया गया है कि उसने अपने किसी शत्रु के विरुद्ध विजय प्राप्त की थी, लेकिन अभिलेख से शत्रु का नाम लुप्त है।कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इसके राज्य में सम्भवत: मगध, गौड़ और उत्तर प्रदेश में गौमती घाटी का कुछ भाग सम्मिलित था । वाक्यपतिराज के गोड़वाहों प्राकृत काव्य का कथन है कि कन्नौज के यशोवर्मा ने मगधनाथ अथवा गौड़ाधिपति पर आक्रमण कर उसे पराजित किया और उसके राज्य पर यशोवर्मा का स्वामित्व हो गया । अनेक इतिहासकारों का मानना है कि यह पराजित मगध गौड़ नरेश जीवित गुप्त द्वितीय ही था। यशवर्मा ने उसके साम्राज्य पर अधिकार सम्भवतः 731 ई. के लगभग किया। इस तरह जीवित गुप्त प्रथम की पराजय के साथ ही उत्तर गुप्त वंश का अन्त हो गया। इस उत्तरकालीन अन्तिम सम्राट जीवित गुप्त का शासन समय लगभग 715 ई से 731 ई. तक रहा ।
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